Panchayati Raj system: आजादी के बाद पंचायती राज व्यवस्था और समितियां
प्राचीन समय से ही भारत में स्वशासन का अपना एक इतिहास रहा है। आजादी के बाद, पंचायती राज व्यवस्था के लिए विभिन्न समितियां बनाई गई थी।
Panchayati Raj system: प्राचीन समय से ही भारत में स्वशासन का अपना एक इतिहास रहा है। समय-समय पर भले ही पंचायती राज संस्थाओं का स्वरूप बदलता रहा हो, लेकिन इसने कभी अपना अस्तित्व नहीं खोया।
आइए, द रुरल इंडिया के इस लेख में आजादी के बाद पंचायती राज व्यवस्था (Panchayati Raj system after independence) की क्या स्थिति रही और पंचायतों के संवैधानिक विकास के लिए क्या-क्या कदम उठाए गए, जानें।
जब भारत आजाद हुआ तो सबसे पहले संविधान बनाने के लिए संविधान सभा का गठन किया गया, जिसमें देश को प्रगति के रास्ते पर ले जाने के लिए कई कानून बने। संविधान में गाँधी जी के स्वराज के सपने को संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में स्थान देकर गाँधीवाद के प्रति अपनी निष्ठा जताई। परन्तु ग्राम-स्वराज को कानूनी मान्यता नहीं मिल सकी, जिससे स्वशासन की मूलभावना स्थापित नहीं हो सकी।
सन् 1952 में भारत सरकार ने ग्रामीण विकास (rural devlopment) पर विशेष ध्यान दिया और इसके लिए केन्द्र में पंचायती राज एवं सामुदायिक विकास मंत्रालय की स्थापना की गई। देश में पंचायती राज को सशक्त बनाने, व्यवस्थित विकास की जिम्मेदारी देने और इसे लोकप्रिय बनाने के लिए कई कमिटियों का गठन किया गया। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण बलवंत राय मेहता समिति, अशोक मेहता समिति, सिंधवी समिति और वी.एन गाडगिल समिति थी, जिनकी सिफारिशें आगे चलकर पंचायती राज अधिनियम-1992 के बनने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
आजादी के बाद से ग्रामीण जनता का जीवन स्तर सुधारने के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने ग्रामीण विकास के लिए कई कार्यक्रम चलाए।
जैसे-
- 2 अक्टूबर, 1952 को इस उद्देश्य के साथ सामुदायिक विकास कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। इस कार्यक्रम के अधीन खण्ड(ब्लॉक) को इकाई मानकर इसके विकास हेतु सरकारी कर्मचारियों के साथ सामान्य जनता को विकास की प्रक्रिया से जोड़ने का प्रयास तो किया, लेकिन जनता को अधिकार नहीं दिया गया, जिससे यह सरकारी अधिकारियों तक ही सीमित रह गया।
- इसके बाद 2 अक्टूबर, 1953 को राष्ट्रीय प्रसार सेवा को प्रारम्भ किया गया। यह कार्यक्रम भी असफल रहा जिसके बाद समय-समय पर ग्राम पंचायतों के विकास के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया गया।
- 1957 में निर्वाचित प्रतिनिधियों को भागीदारी देने तथा प्रशासन की भूमिका केवल कानूनी सलाह देने तक सीमित रखने से सम्बन्धित सुझाव दिए। पंचायती राज का शुभारम्भ भी यहीं से माना जाता है जब लोगों को स्थानीय शासन में भागीदारी देने की बात की गई।
आधुनिक भारत में राजस्थान को पहला राज्य होने का गौरव है, जहाँ पहली बार पंचायती राज की स्थापना की गई। 2 सितंबर 1959 को राजस्थान सरकार ने ‘पंचायत समिति एवं जिला परिषद अधिनियम-1959’ पारित कर पंचायती राज व्यवस्था की शुरूआत की।
पंचायती राज व्यवस्था का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 2 अक्टूबर 1959 को नागौर जिले के बगदरी गाँव से की।
भारत में केवल नगालैंड को छोड़कर लगभग सभी राज्यों में पंचायती राज प्रणाली सुचारू रुप से चल रही है। कहीं एक-स्तरीय, कहीं द्वि-स्तरीय, तो कहीं त्रि-स्तरीय, पंचायती राज प्रणाली चल रही है।
जैसे आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, इत्यादि राज्यों में त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था संचालित की जा रही है। उड़ीसा, हरियाणा, तमिलनाडु में द्वस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू है। जबकि केरल, मणिपुर, सिक्किम, त्रिपुरा जैसे राज्यों में एक स्तरीय ग्राम पंचायतें लागू है।
#नोट- मेघालय, नगालैंड और मिजोरम जैसे राज्यों में एक स्तरीय जनजातीय परिषद् लागू है।
स्वतंत्र भारत में पंचायती राज पर लिए सुझाव देने हेतु अनेक समितियां बनी। जिसमें सबसे पहले वर्ष 1957 में योजना आयोग के द्वारा ‘सामुदायिक विकास कार्यक्रम’ और ‘राष्ट्रीय विस्तार सेवा कार्यक्रम’ के अध्ययन के लिये ‘बलवंत राय मेहता समिति’ का गठन किया गया।
बलवंत राय मेहता समिति (Balwant Rai Mehta Committee)
सामुदायिक विकास कार्यक्रम के क्रियान्वयन हेतु बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में 1957 ई. में एक समिति का गठन किया गया, इस समिति ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम और सत्ता की विकेंद्रीकरण का अध्ययन किया। इस समिति ने पंचायतों के त्रिस्तरीय मॉडल को पेश किया जिसमें ग्राम पंचायत, पंचायत समिति (क्षेत्र पंचायत) और जिला परिषद् थी। इस समिति की सिफारिशों को 1 अप्रैल 1958 को मान्यता दी गई।
बलवंन राय समिति की सिफारिशों के अनुसार
सत्ता में समान भागीदारी और सामुदायिक विकास कार्यक्रम को सफल बनाने हेतु पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत की जानी चाहिए।” इस समिति ने ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, खंड (ब्लॉक) स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर ज़िला परिषद् बनाने का सुझाव दिया।
इस समिति की सिफारिशों को ध्यान में रखकर ही सर्वप्रथम 2 अक्टूबर 1959 में राजस्थान के नागौर जिले से पंचायती राज व्यवस्था का शुभारंभ किया गया। इसके बाद 1959 में ही आंध्र प्रदेश ने पंचायती राज अधिनियम को पारित किया। परन्तु वित्तीय व्यवस्थाओं और चुनाव में एकरुपता न होने के कारण यह असफल रहा।
अशोक मेहता समिति (Ashok Mehta Committee)
बलवंत राय मेहता समिति की कमियों को दूर करने और एक सुव्यवस्थित पंचायती राज स्थापित करने के लिए सरकार द्वारा अशोक मेहता समिति का गठन 1977 में किया गया। इस समिति ने 132 सिफारिशें 1978 में प्रस्तुत की। इस समिति ने पंचायतों को द्विस्तरीय बनाने की सिफारिश की, जिसमें पंचायतों को जिला परिषद और मंडल पंचायत बनाने की बात कही गई। इस समिति की कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशें निम्नलिखित हैं।
- त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को समाप्त कर द्विस्तरीय प्रणाली अपनाई जाए।
- 15000-20000 की जनसंख्या पर मंडल पंचायत का गठन किया जाए तथा ग्राम पंचायतों को समाप्त किया जाए।
- जिले को विकेंद्रीकरण का प्रथम स्थान माना जाए।
- पंचायत चुनाव राजनीतिक दल के आधार पर होने चाहिए।
- पंचायतों को कर लगाने की शक्ति दी जाए जिससे धन जुटाया जा सके।
- जिला स्तर के नियोजन के लिए जिले को ही जवाबदेही बनाया जाए तथा जिला परिषद एक कार्यकारी निकाय हो।
जी.वी.के. राव समिति (GVK Rao Committee)
जी.वी.के. राव की अध्यक्षता में 1985 में ग्रामीण विकास और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के लिए प्रशासनिक प्रबंधन विषय पर एक समिति का गठन किया गया। इस समिति ने भी सत्ता की विकेंद्रीकरण की बात की। राज्य स्तर पर राज्य विकास परिषद, जिला स्तर पर जिला विकास परिषद, मंडल स्तर पर मंडल पंचायत तथा ग्राम स्तर पर ग्राम सभा की सिफारिश की।
इस समिति ने कहा कि
पंचायतों का चुनाव नियमित हो, समिति ने विकेंद्रीकरण के तहत नियोजन एवं विकास कार्य में पंचायतों की भूमिका पर बल दिया। इस समिति ने विभिन्न स्तरों पर अनुसूचित जाति तथा जनजाति एवं महिलाओं के लिए आरक्षण की भी सिफ़ारिश की”, लेकिन समिति की सिफ़ारिश को अमान्य कर दिया गया।
एल. एम. सिंघवी समिति (L. M. Singhvi Committee)
राजीव गाँधी सरकार ने 1986 में एल. एम. सिंघवी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया, जिसका मुख्य उद्देश्य प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण में वृद्धि और पंचायतों का फिर से सशक्तिकरण करना था। सर्वप्रथम एल. एम. सिंघवी ने ही पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा देने का सुझाव दिया।
- इस समिति ने ग्राम पंचायतों को सक्षम बनाने के लिए गाँवों के पुनर्गठन की सिफारिश की। इसके साथ-साथ यह भी सुझाव दिया कि ग्राम पंचायतों को अधिक वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराया जाए।
- पंचायती राज संस्थानों के चुनाव, उन्हें भंग करने और उनकी कार्यप्रणाली से जुड़े विवादों के न्यायिक समाधान के लिए प्रत्येक राज्य में न्यायिक संस्थाओं की स्थापना की जानी चाहिए।
- पंचायतराज के निर्वाचित प्रतिनिधियों को सभी विकास कार्यों की जिम्मेदारी सौंपी जाए ताकि ग्रामीण स्तर के सभी कार्यों पर पंचायती राज संस्थाओं का पूर्ण नियन्त्रण हो सके।
वी.एन गाडगिल समिति (VN Gadgil Committee)
वर्ष 1988 में वी.एन. गाडगिल की अध्यक्षता में पंचायतों को और बेहतर बनाने के लिए एक समिति का गठन किया गया।
इस समिति की प्रमुख सिफारशें निम्नलिखित हैं।
- पंचायती राज संस्थाओं को कानूनी मान्यता दी जाए।
- पंचायतों को अपने क्षेत्र में कर लगाने व वसूलने का अधिकार होना चाहिए।
- पंचायतों में सभी तीन स्तरों पर जनसंख्या के अनुसार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं के लिए भी आरक्षण होना चाहिए।
- त्रि-स्तरीय पंचायती राज संस्थाओं का गठन कम-से-कम 5 वर्ष के लिए होना चाहिए।
- पंचायतों के लिए वित्त आयोग का गठन होना चाहिए जिससे पंचायतें आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो सकें।
64वाँ संशोधन विधेयक (64th Amendment Bill)
गाडगिल और एल.एम.सिंघवी समितियों की सिफारिशों के फलस्वरूप ही तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने जुलाई 1989 में 64वाँ संविधान (संशोधन) विधेयक संसद में पेश किया ताकि पंचायती राज संस्थानों को अधिक शक्ति और मजबूती प्रदान किया जा सके।
लोकसभा ने इस विधेयक को लोकसभा में अगस्त 1989 में पारित कर दिया गया, लेकिन कांग्रेस के पास राजसभा मे बहुमत नहीं होने के कारण यहाँ विधेयक पास नहीं हो सका।
वर्ष 1989 में 64वां संविधान संशोधन विधेयक राज्यसभा में असफल होने के बाद पीवी नरसिम्हा राव सरकार के दौरान 1992 के 73वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायतों को संवैधानिक दर्जा मिला।